Wednesday, September 8, 2010

तारों का सत्य...



काले वीभत्स आकाश में,
दूर कहीं एक तारा था,
नन्हा सा, मगर बहुत चमकीला
हर तारे का प्यारा था,
चाँद का दुलारा था.
वो रात कुछ ज्यादा काली थी,
काले घने बादलों ने चाँद को भी ढक लिया था
वो नन्हा तारा तभी न जाने कहाँ से
ख़ुशी से नाचता हुआ, चाँद के करीब आया,
कुछ कहना चाहता था शायद चाँद से,
तभी कुछ ऐसा हुआ के चाँद चीख पड़ा,
याचक नज़रों से चाँद की तरफ देखता वो तारा,
तेजी से पृथ्वी की तरफ गिरता चला जा रहा था,
चाँद उसे रोकना चाहता था ,
पर देखते ही देखते, वह न जाने कहाँ खो गया.
आज चाँद के मन में बहुतत गुस्सा था, प्रतिशोध था,
आज वो धरती पर शीतल चाँदनी के बजाय आग बरसना चाहता था,
तभी उसने भरी नज़रों से पृथ्वी से प्रश्न किया,
के क्यूँ तुने मेरे प्यारे आँख के तारे को मुझसे चीन लिया???
पृथ्वी मुस्कुरा कर बोली,
जब तुम्हारा आकाश मुझसे मेरे तारे चीनता है,
तो मुझमें भी बहुत प्रतिशोध जागता है,
जब किसी का इकलौता बेटा , किसी का पिता, किसी की बहिन, किसी की माँ,
इस धरती से आकाश को जाते हैं,
तो मेरी भी छाती दर्द से इसी तरह फट ती  है
लेकिन मेरे प्यारे भाई 
ये सब तो हमें देखना और सहना ही होगा,
तुम्हारे तारों का धरती में समाना, और मेरे प्यारों का आकाश में लीन हो जाना.
शायद येही प्रकृति का नियम है,
और येही एक कठोर सत्य भी.... 

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