Sunday, September 5, 2010

संघर्ष...



           


                    
वो सर्दियों की सुबह , हर दिन से कुछ अलग थी,
चारों ओर कोहरे की एक बरफ नुमाँ  चादर,
कहीं कहीं पे कभी  कभी कोई पेड़
जो शायद बहुत करीब था तेजी से दौड़ता हुआ दिखाई पड़ जाता
कभी कभी कहीं पे कोहरा कुछ कम होता..
तो प्रकृति का सौंदर्य किसी काली रात में,
एक चमकीले तारे की तरह लगता
कहीं सुनहरी धुप थी तो कहीं कोहरे की चाँदनी
कभी कोहरे के अन्धकार में मैं अपने अतीत की कुछ उलझनों में उलझ जाती 
तो कहीं धूप की चमक से अनायास ही किसी बात से मेरे होठों पे मुस्कान उभर आती..
कभी भविष्य के लिए उसी सुनहरी धुप की तरह कोई सपना बुनती
तो कभी आने वाली उलझनों से बचने के उपाय ढूँढती.
अपनी ज़िन्दगी से ज्यादा खुश नहीं रही कभी भी मैं.,
तभी, किसी की ज़ोरदार और भारी भरकम  आवाज़ से,
अचानक मेरा विचारों का चक्र टूटा
घडी में सुबह के नौ बज चुके थे,
कोई स्टेशन था शायद.
कोहरे के कारण सिर्फ आवाजें ही मेरे कानों तक पहुँच पा रही थीं,
तभी अचानक एक चेहरा मेरी आँखों के सामने उभरा
निरीह, कुछ ढूँढती, शायद भूक प्यास से व्याकुल आँखों को देखकर,
ठण्ड से कम, ओर उन आँखों की शांत आवाज़ से मेरे रौंगटे खड़े हो गए....
वो बूढी आँखें जीवन के इस संघर्ष से जूझ रही थीं,
"दो दिन से भूका हूँ,...ठण्ड से हर डिब्बे की खिड़की बंद है....
बड़ी मुश्किल से तुम्हारी खिड़की खुली मिली है,...इस बूढ़े को निराश मत कर बेटी,
कुछ दे दे वरना ये बेजान शरीर ठण्ड से दम तोड़ देगा"....
बिना कुछ सोचे समझे बैग से अपना tiffin निकाल के उसकी ओर बड़ा दिया...
और वो आगे बढ गया, कुछ दुआएं बदले में दे गया..
आगे का द्रश्य देख कर मेरी आँखें खुली की खुली रह गयीं....
बिना एक पैर और एक हाथ के उस दुबले बूढ़े शरीर में सिर्फ एक शाल थी.
तभी एक, चार लोगों का परिवार मेरे डिब्बे में चड़ा
दो दो जाकेट पहनने के बावजूद आते ही उन्होंने खिड़की बंद करवा दी
फिर खाने के डिब्बे निकाल कर बैठ गए
तरह तरह के खाने से भरे उनके डिब्बे देखकर मुझे भी अब भूक लगने लगी.
लेकिन अपना  tiffin तो मैं दे चुकी थी,
सिर्फ चाय से ही काम चलाना पड़ा.
उनके दो बच्चों ने काफी खाना बर्बाद किया था,
जिसे बिना किसी दर्द के उन्होंने  खिड़की से बहार फैंक दिया
तभी उस बंद होती खिड़की से मैंने
दो चार बच्चों को उस फैंके हुए खाने की तरफ दौड़ते देखा....
ट्रेन आगे बड़ी और खिड़की भी बंद हो गयी...
उस बूढ़े की शकल अभी भी मेरी आँखों के आगे घूम रही थी
अपनी ज़िन्दगी की मुश्किलें मुझे अब कुछ आसान लग रही थीं,
मेरा ये सफ़र शायद थोड़ा तो सार्थक हो गया था,
ट्रेन की पटरी पे चलती हुई या फिर दौड़ती हुई  सी ज़िन्दगी,..
शायद यही जीवन है, ......
या फिर सिर्फ संघर्ष....
                                    

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